चित्तौड़गढ़ का सफर

चित्तौड़गढ़ शहर राजस्थान
चित्तौड़गढ़ – ऐतिहासिक चमत्कार जो आपको याद रहेगा
चित्तौड़गढ़ शहर राजस्थान में स्थित है जो लगभग 700 एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है और अपने शानदार किलों, मंदिरों, दुर्ग और महलों के लिए जाना जाता है।

पौराणिक कथाओं में चित्तौड़गढ़
इस शहर के योद्धाओं की वीरता की कहानियों को भारत के इतिहास में सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। एक लोककथा के अनुसार हिंदू महाकाव्य के एक महत्वपूर्ण चरित्र और पांडवों में से एक, भीम ने एक साधु से अमरत्व का रहस्य जानने के लिए इस स्थान की यात्रा की थी। हालांकि वह अपनी अधीरता के कारण अपने प्रयास में सफल नहीं हो सका। उसने कुंठा और क्रोध में जमीन पर पैर पटका जिसके कारण इस स्थान पर एक जलाशय बना जो भीम लात के नाम से जाना जाता है।

चित्तौड़गढ़ और उसके आसपास
इस शहर का प्रमुख आकर्षण चित्तौड़गढ़ किला है, जो 180 मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। इस किले में कई स्मारक है जिनमें से प्रत्येक के निर्माण के पीछे कुछ कहानी है। महाराणा फ़तेह सिंह द्वारा बनवाया गया फतेह प्रकाश महल एक सुंदर ऐतिहासिक स्थान है। महल के अंदर आपको भगवान गणेश की एक सुंदर मूर्ति, बड़ा फ़व्वारा और सुंदर भित्ति चित्र मिलेंगे जो विगत युग की कला को दर्शाते हैं। इसके अलावा यहाँ इस क्षेत्र में अनेक धार्मिक केंद्र हैं जैसे सांवरियाजी मंदिर, तुलजा भवानी मंदिर, जोगिनिया माता जी मंदिर और मत्री कुंडिया मंदिर।
प्रकृति का पूर्ण रूप से आनंद उठाने के लिए पर्यटक बस्सी वन्य जीवन अभ्यारण्य का भ्रमण कर सकते हैं जो 50 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इसके अलावा सीतामाता अभ्यारण्य और भैन्स्रोगढ़ वन्य जीवन अभ्यारण्य भी अपनी जीवों और वनस्पतियों के लिए पर्यटकों में लोकप्रिय हैं। वे पर्यटक जो इस शहर के बारे में और इसकी संस्कृति के बारे में अधिक जानना चाहते हैं वे पुरातत्व संग्रहालय (आरर्कियोलॉजिकल म्यूज़ियम) का भ्रमण कर सकते हैं जहाँ सुंदर मूर्तियाँ, दुर्लभ चित्र मूर्तियाँ और प्राचीन काल के भित्ति चित्र देखे जा सकते हैं। संग्रहालय में पाई जाने वाली कुछ मूर्तियाँ गुप्त और मौर्य राजवंशों से जुड़ी हुई हैं।
यदि समय अनुमति दे तो पर्यटक बीजापुर में स्थित एक पुराने किले का भ्रमण कर सकते हैं जिसे अब एक होटल में परिवर्तित कर दिया गया है। प्रतापगढ़ के पास स्थित 16 वीं शताब्दी का देवगढ़ किला भी एक प्रमुख पर्यटन स्थल है।यह स्थान अनेक मंदिरों और महलों के लिए जाना जाता है।
मेनल एक छोटा सा शहर है जो चित्तौड़गढ़ से 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अपने परिदृश्य और मंदिरों की वास्तुकला के कारण यह स्थान “मिनी खजुराहो” के नाम से भी जाना जाता है। इस स्थान पर खुदाई के बाद कई बौद्ध मंदिर मिले जिमें से 12 वीं शताब्दी का मंदिर प्रमुख है। अपने सुंदर दृश्यों के कारण यह स्थान एक प्रमुख पिकनिक स्थल बन गया है।
इसके अल्वा पर्यटक गायमुख कुंड के भ्रमण की योजना भी बना सकते हैं जिसका आकार इसके नाम के अनुसार गाय के मुख के समान है। इस जलाशय के पास रानी बिंदर टनल है जो शहर का प्रमुख आकर्षण भी है।

चित्तौड़गढ़ पहुँचना
चित्तौड़गढ़ का निकटतम हवाई अड्डा डबोक हवाई अड्डा है जिसे महाराणा प्रताप हवाई अड्डे के नाम से भी जाना जाता है, जो 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह हवाई अड्डा सभी प्रमुख भारतीय शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। चित्तौड़गढ़ का रेलवे स्टेशन महत्वपूर्ण शहरों जैसे अजमेर, जयपुर, उदयपुर, कोटा और नई दिल्ली से जुड़ा हुआ है। इस शर तक रास्ते द्वारा आसानी से पहुँचा जा सकता है और राज्य परिवहन और निजी बस दोनों प्रकार की सेवा यहाँ उपलब्ध है।

चित्तौड़गढ़ में मौसम
गर्मियों में इस स्थान का मौसम बहुत गर्म होता है और इस दौरान अधिकतम तापमान 44 डिग्री सेल्सियस तक जाता है। मानसून के दौरान रुक रुक कर होने वाली वर्षा के कारण हवा नम होती है। इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष औसत 60 सेमी. से 80 सेमी. तक वर्षा होती है। इस स्थान की यात्रा के लिए ठंड का मौसम सबसे उपयुक्त माना जाता है क्योंकि तापमान 11 डिग्री सेल्सियस और 28 डिग्री सेल्सियस के बीच होता है।


बस्सी वन्य जीवन अभ्यारण्य, चित्तौड़गढ़ Bassi Wildlife Sanctuary, Chittorgarh
बस्सी वन्य जीवन अभ्यारण्य बस्सी गाँव के पास स्थित है जो 50 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। पश्चिम में विंध्याचल श्रेणियों द्वारा घिरा हुआ यह क्षेत्र प्रकृति प्रेमियों की खुशी के लिए एक सुरम्य दृश्य प्रस्तुत करता है। बहुत से जंगली जानवरों जैसे चीता, जंगली सूअर, नेवले और हिरणों का प्राकृतिक आवास होने के कारण यह स्थान वन्य
जीवन के प्रति उत्साही लोगों के लिए आकर्षक गंतव्य स्थान है। यह स्थान अनेक प्रवासी पक्षियों को भी आकर्षित करता है। अभ्यारण्य में स्थित ओराई बाँध और बस्सी बाँध भी इस स्थान के प्रमुख आकर्षण हैं। इस बात का ध्यान रखें कि इस अभ्यारण्य का भ्रमण करने के पहले पर्यटकों को चित्तौड़गढ़ के जिला वन अधिकारी की अनुमति लेना आवश्यक है।


चित्तौड़गढ़ किला, चित्तौड़गढ़ Chittorgarh Fort, Chittorgarh
चित्तौड़गढ़ किला एक भव्य और शानदार संरचना है जो चित्तौड़गढ़ के शानदार इतिहास को बताता है।यह इस शहर का प्रमुख पर्यटन स्थल है। एक लोककथा के अनुसार इस किले का निर्माण मौर्य ने 7 वीं शताब्दी के दौरान किया था। यह शानदार संरचना 180 मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है और लगभग 700 एकड के कषेत्र में फ़ैली हुई है। यह वास्तुकला प्रवीणता का एक प्रतीक है जो कई विध्वंसों के बाद भी बचा हुआ है। किले तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं है; आपको किले तक पहुँचने के लिए एक खड़े और घुमावदार मार्ग से एक मील चलना होगा। इस किले में सात नुकीले लोहे के दरवाज़े हैं जिनके नाम हिंदू देवताओं के नाम पर पड़े। इस किले में कई सुंदर मंदिरों के साथ साथ रानी पद्मिनी और महाराणा कुम्भ के शानदार महल हैं।किले में कई जल निकाय हैं जिन्हें वर्षा या प्राकृतिक जलग्रहों से पानी मिलता रहता है।


नगरी, चित्तौड़गढ़  Nagri, Chittorgarh
नगरी जो मौर्य राजवंश का प्रमुख शहर था, चित्तौड़गढ़ से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह बरीच नदी के किनारे स्थित है।पहले इस शहर को “माध्यमिका” के नाम से जाना जाता था और मौर्य काल से गुप्त काल तक इसने बहुत उन्नति की। इन वर्षों में खुदाई में इस स्थान के बारे में कई रोचक तथ्यों का पता चला जैसे हिंदू और बौद्ध संस्कृति से इसका संबंध। खुदाई के दौरान इस ऐतिहासिक स्थल से टेराकोटा टाईल्स से सजा हुआ एक स्तूप मिला।


कालिका माता मंदिर, चित्तौड़गढ़ Kalika Mata Temple, Chittorgarh
आठवीं सदी में निर्मित कालिका माता मंदिर क्षेत्र के सबसे पुराने मंदिरों में से एक माना जाता है। सिसोदिया राजवंश के राजा बप्पारावल ने एक सूर्य मंदिर के रूप में इस मंदिर का निर्माण करवाया था। हालांकि चौदहवी शताब्दी में महाराणा हमीर सिंह ने मंदिर में कलिका माता की मूर्ति को स्थापित किया, तब से यह कलिका माता के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
देवी कलिका वीरता एवं शक्ति का प्रतीक हैं व इन्हें चित्तौड़गढ़ की रक्षक माना जाता है। कलिका माता मंदिर कई शानदार नक्काशीदार चित्र व मूर्तियों से सजा स्थापत्य कला का एक सुंदर नमूना है। वार्षिक उत्सव कालिका माता का आशीर्वाद लेने आए भक्तों की एक बड़ी संख्या को आकर्षित करता है।



गोमुखकुंड, चित्तौड़गढ़  Gaumukh Kund, Chittorgarh
गोमुखकुंड, प्रसिद्द चितौड़गढ़ किले के पश्चिमी भाग में स्थित एक पवित्र जलाशय है। गोमुख का वास्तविक अर्थ ‘गाय का मुख’ होता है। पानी, चट्टानों की दरारों के बीच से बहता है व एक अवधि के पश्चात् जलाशय में गिरता है। यात्रियों को जलाशय की मछलियों को खिलाने की अनुमति है। इस जलाशय के पास स्थित रानी बिंदर सुरंग भी एक विख्यात आकर्षण है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, यह सुरंग एक भूमिगत कक्ष की ओर जाती है, जहां चित्तौड़गढ़ की रानी पद्मिनी ने 'जौहर' किया था।
पुरातत्व संग्रहालय, चित्तौड़गढ़ Archaeological Museum, Chittorgarh
चित्तौड़गढ़ का पुरातत्व संग्रहालय बंबिर की दीवार के पूर्वी सिरे पर स्थित है। यह पर्यटन का एक महत्वपूर्ण आकर्षण है। वे लोग जिन्हें इतिहास में विशेष रूचि है उन्हें यह स्थान अवश्य पसंद आएगा। इस संग्रहालय में कई ऐतिहासिक कलाकृतियाँ, चित्र और मूर्तियां हैं जो या तो राजपूत शासकों के शासनकाल में बनी थी या बहादुर राजपूत शासकों को अमर करने के लिए इन्हें बनाया गया। संग्रहालय की कुछ वस्तुएँ मौर्य और गुप्त काल की हैं। ये कलाकृतियाँ बौद्ध और हिंदू संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को प्रदर्शित करती है। इस संग्रहालय में अनेक लेख भी संरक्षित हैं जो इन प्राचीन स्थानों की खुदाई के दौरान मिले थे।


महा सती, चित्तौड़गढ़  Maha Sati, Chittorgarh
महा सती एक पवित्र स्थल है जहाँ उदयपुर के शासकों का दाह संस्कार किया जाता था। इस स्थान का मुख्य आकर्षण गंगोदभव कुंड है जो एक प्राकृतिक जलाशय है और ऐसा माना जाता है कि यह गंगा नदी की एक सहायक नदी से बना है। यह भूमिगत उपनदी आह्ड नदी के रूप में उभर कर उपर आती है जिससे यह कुंड बना है। एक लोककथा के अनुसार इस कुंड का पानी गंगा नदी जितना ही पवित्र है। यहाँ भगवान शिव का एक मंदिर भी है जो मंदिर परिसर में स्थित है।


कीर्ति स्तंभ, चित्तौड़गढ़  Kirti Stambh, Chittorgarh
कीर्ति स्तम्भ का निर्माण महाराणा कुम्भा ने 1448 ई. में करवाया था। यह स्तम्भ राजस्थान के चित्तौड़गढ़ क़िले में स्थित है। इस शानदार स्तम्भ को 'विजय स्तम्भ' के रूप में भी जाना जाता है। महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूदशाह ख़िलजी को युद्ध में प्रथम बार परास्त कर उसकी यादगार में इष्टदेव विष्णु के निमित्त यह कीर्ति स्तम्भ बनवाया था।

स्थापना
इस स्तम्भ की प्रतिष्ठा सन 1448 (संवत 1505) में हुई थी। भगवान विष्णु को समर्पित यह स्तम्भ 37.19 मीटर ऊँचा है तथा नौ मंजिलों में विभक्‍त है। कीर्ति स्तम्भ वास्तुकला की दृष्टि से अपने आप में एक अद्भुत मीनार है। मंज़िल पर झरोखा होने से इसके भीतरी भाग में भी प्रकाश रहता है।

शिल्पकारी
इसमें विष्णु के विभिन्न रुपों, जैसे- जनार्दन, अनन्त आदि उनके अवतारों तथा ब्रह्मा, शिव, भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं, अर्धनारीश्वर (आधा शरीर पार्वती तथा आधा शिव का), उमामहेश्वर, लक्ष्मीनारायण, ब्रह्मासावित्री, हरिहर (आधा शरीर विष्णु और आधा शिव का), हरिहर पितामह (ब्रम्हा, विष्णु तथा महेश तीनों एक ही मूर्ति में), ॠतु, आयुध (शस्त्र), दिक्पाल तथा रामायण तथा महाभारत के पात्रों की सैकड़ों मूर्तियाँ खुदी हैं। प्रत्येक मूर्ति के ऊपर या नीचे उनका नाम भी खुदा हुआ है। इस प्रकार प्राचीन मूर्तियों के विभिन्न भंगिमाओं का विश्लेषण के लिए यह भवन एक अपूर्व साधन है। कुछ चित्रों में देश की भौगोलिक विचित्रताओं को भी उत्कीर्ण किया गया है। कीर्तिस्तम्भ के ऊपरी मंज़िल से दुर्ग एवं निकटवर्ती क्षेत्रों का विहंगम दृश्य दिखता है।



कुंभा श्याम मंदिर, चित्तौड़गढ़ Kumbha Shyam Temple, Chittorgarh
कुंभा श्याम मंदिर भगवान विष्णू को समर्पित है, जो यहाँ वराह अवतार में पूजे जाते हैं (उनका शुकर अवतार)। इस मंदिर का निर्माण महाराणा संग्राम ने अपनी पुत्रवधू मीरा की विशेष विनती पर किया था। यह चित्तौड़गढ़ किले में स्थित कुंभा मंदिर के निकट स्थित है।
मंदिर की वास्तुकला चित्तौड़गढ़ में स्थित कालिका माता मंदिर के समान ही है। इस सुंदर मंदिर में ऊँची छत, पिरामिड के आकार का स्तंभ है, जबकि फर्श पर मीरा के गुरु वाराणसी के संत रविदास के पद चिन्ह हैं। मंदिर की दीवारों पर कई देवी देवताओं के सुंदर चित्र हैं। इस जगह के शांत वातावरण, धार्मिक महत्व और साथ ही किंवदंतियों से जुड़े होने के कारण यहाँ भक्तों की भीड़ जुटी रहती है।



मेनल, चित्तौड़गढ़  Menal, Chittorgarh
मेनल, चित्तौड़गढ़ से 90 किमी की दूरी पर चितौड़गढ़- बूंदी मार्ग पर स्थित एक छोटा शहर है। इस जगह के सुन्दर परिदृश्य और प्राचीन मंदिर खजुराहो जैसे लगते हैं; इसलिए यह जगह छोटा खजुराहो के नाम से भी जानी जाती है।
इस जगह पर पहले से ही बहुत से प्राचीन बौद्ध मंदिर हैं, और खुदाई से अन्य धार्मिक स्थलों का अनावरण जारी है। मंदिरों के अलावा इस जगह पर सुंदर जल प्रपात, घने जंगल भी हैं जिसके कारण यह एक प्रसिद्द पिकनिक स्थल है।



पद्मिनी का महल, चित्तौड़गढ़  Padmini's Palace, Chittorgarh
पद्मिनी महल सुंदर और बहादुर रानी पद्मिनी का घर था। यह महल चित्तौड़गढ़ किले में स्थित है और रानी पद्मिनी के साहस और शान की कहानी बताता है। महल के पास सुंदर कमल का एक तालाब है। ऐसा विश्वास है कि यही वह स्थान है जहाँ सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी के प्रतिबिम्ब की एक झलक देखी थी। रानी के शाश्वत सौंदर्य से सुलतान अभिभूत हो गया और उसकी रानी को पाने की इच्छा के कारण अंततः युद्ध हुआ। इस महल की वास्तुकला अदभुत है और यहाँ का सचित्र वातावरण यहाँ का आकर्षण बढाता है। पास ही भगवान शिव को समर्पित नीलकंठ महादेव मंदिर है।


पन्ना धाय
राणा साँगा के पुत्र राणा उदयसिंह की धाय माँ थीं। पन्ना धाय किसी राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। अपना सर्वस्व स्वामी को अर्पण करने वाली वीरांगना पन्ना धाय का जन्म कमेरी गाँव में हुआ था। राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह को माँ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना 'धाय माँ' कहलाई थी। पन्ना का पुत्र चन्दन और राजकुमार उदयसिंह साथ-साथ बड़े हुए थे। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला था। पन्नाधाय ने उदयसिंह की माँ कर्मावती के सामूहिक आत्म बलिदान द्वारा स्वर्गारोहण पर बालक की परवरिश करने का दायित्व संभाला था। पन्ना ने पूरी लगन से बालक की परवरिश और सुरक्षा की। पन्ना चित्तौड़ के कुम्भा महल में रहती थी।

पुत्र का बलिदान
चित्तौड़ का शासक, दासी का पुत्र बनवीर बनना चाहता था। उसने राणा के वंशजों को एक-एक कर मार डाला। बनवीर एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई। पन्ना राजवंश और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महल से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उसके बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।
पन्ना अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना धन्य हैं! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आँखों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।

मेवाड़ का वैधानिक महाराणा
पुत्र की मृत्यु के बाद पन्ना उदयसिंह को लेकर बहुत दिनों तक सप्ताह शरण के लिए भटकती रही पर दुष्ट बनबीर के खतरे के डर से कई राजकुल जिन्हें पन्ना को आश्रय देना चाहिए था, उन्होंने पन्ना को आश्रय नहीं दिया। पन्ना जगह-जगह राजद्रोहियों से बचती, कतराती तथा स्वामिभक्त प्रतीत होने वाले प्रजाजनों के सामने अपने को ज़ाहिर करती भटकती रही। कुम्भलगढ़ में उसे यह जाने बिना कि उसकी भवितव्यता क्या है शरण मिल गयी। उदयसिंह क़िलेदार का भांजा बनकर बड़ा हुआ। तेरह वर्ष की आयु में मेवाड़ी उमरावों ने उदयसिंह को अपना राजा स्वीकार कर लिया और उसका राज्याभिषेक कर दिया। उदय सिंह 1542 में मेवाड़ के वैधानिक महाराणा बन गए।



मीरा मंदिर, चित्तौड़गढ़  Meera Temple, Chittorgarh
मीरांबाई अथवा मीराबाई हिन्दू आध्यात्मिक कवयित्री थीं, जिनके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित भजन उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं। भजन और स्तुति की रचनाएँ कर आमजन को भगवान के और समीप पहुँचाने वाले संतों और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर माना जाता है। मीरा का सम्बन्ध एक राजपूत परिवार से था। वे राजपूत राजकुमारी थीं, जो मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थीं। उनकी शाही शिक्षा में संगीत और धर्म के साथ-साथ राजनीति व प्रशासन भी शामिल थे। एक साधु द्वारा बचपन में उन्हें कृष्ण की मूर्ति दिए जाने के साथ ही उनकी आजन्म कृष्ण भक्ति की शुरुआत हुई, जिनकी वह दिव्य प्रेमी के रूप में आराधना करती थीं।

जन्म तथा शिक्षा
प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवयित्री मीराबाई जोधपुर, राजस्थान के मेड़वा राजकुल की राजकुमारी थीं। विद्वानों में इनकी जन्म-तिथि के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान इनका जन्म 1430 ई. मानते हैं और कुछ 1498 ई.। मीराबाई मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थीं। उनका जीवन बड़े दु:ख और कष्ट में व्यतीत हुआ था। मीरा जब केवल दो वर्ष की थीं, उनकी माता की मृत्यु हो गई। इसलिए इनके दादा राव दूदा उन्हें मेड़ता ले आए और अपनी देख-रेख में उनका पालन-पोषण किया। राव दूदा एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्त-हृदय व्यक्ति भी थे और साधु-संतों का आना-जाना इनके यहाँ लगा ही रहता था। इसलिए मीरा बचपन से ही धार्मिक लोगों के सम्पर्क में आती रहीं। इसके साथ ही उन्होंने तीर-तलवार, जैसे- शस्त्र-चालन, घुड़सवारी, रथ-चालन आदि के साथ-साथ संगीत तथा आध्यात्मिक शिक्षा भी पाई।[1]

मीरां नृत्य के लिए घुँघरू बाँधती हुई
मीराबाई के बालमन में कृष्ण की ऐसी छवि बसी थी कि यौवन काल से लेकर मृत्यु तक उन्होंने कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। जोधपुर के राठौड़ रतन सिंह की इकलौती पुत्री मीराबाई का मन बचपन से ही कृष्ण-भक्ति में रम गया था। उनका कृष्ण प्रेम बचपन की एक घटना की वजह से अपने चरम पर पहुँचा था। बाल्यकाल में एक दिन उनके पड़ोस में किसी धनवान व्यक्ति के यहाँ बारात आई थी। सभी स्त्रियाँ छत से खड़ी होकर बारात देख रही थीं। मीराबाई भी बारात देखने के लिए छत पर आ गईं। बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि "मेरा दूल्हा कौन है?" इस पर मीराबाई की माता ने उपहास में ही भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति की तरफ़ इशारा करते हुए कह दिया कि "यही तुम्हारे दूल्हा हैं"। यह बात मीराबाई के बालमन में एक गाँठ की तरह समा गई और अब वे कृष्ण को ही अपना पति समझने लगीं।

विवाह
मीराबाई के अद्वितीय गुणों को देख कर ही मेवाड़ नरेश राणा संग्राम सिंह ने मीराबाई के घर अपने बड़े बेटे भोजराज के लिए विवाह का प्रस्ताव भेजा। यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया और भोजराज के साथ मीरा का विवाह हो गया। इस विवाह के लिए पहले तो मीराबाई ने मना कर दिया था, लेकिन परिवार वालों के अत्यधिक बल देने पर वह तैयार हो गईं। वह फूट-फूट कर रोने लगीं और विदाई के समय श्रीकृष्ण की वही मूर्ति अपने साथ ले गईं, जिसे उनकी माता ने उनका दूल्हा बताया था। मीराबाई ने लज्जा और परंपरा को त्याग कर अनूठे प्रेम और भक्ति का परिचय दिया।

पति की मृत्यु
विवाह के दस वर्ष बाद ही मीराबाई के पति भोजराज का निधन हो गया। सम्भवत: उनके पति की युद्धोपरांत घावों के कारण मृत्यु हो गई थी। पति की मृत्यु के बाद ससुराल में मीराबाई पर कई अत्याचार किए गए। सन्‌ 1527 ई. में बाबर और सांगा के युद्ध में मीरा के पिता रत्नसिंह मारे गए और लगभग तभी श्वसुर की मृत्यु हुई। सांगा की मृत्यु के पश्चात भोजराज के छोटे भाई रत्नसिंह सिंहासनासीन हुए, अतएव निश्चित है कि अपने श्वसुर के जीवनकाल में ही मीरा विधवा हो गई थीं। सन्‌ 1531 ई. में राणा रत्नसिंह की मृत्यु हुई और उनके सौतेले भाई विक्रमादित्य राणा बने।

लौकिक प्रेम की अल्प समय में ही इतिश्री होने पर मीरा ने परलौकिक प्रेम को अपनाया और कृष्ण भक्त हो गई। वे सत्संग, साधु-संत-दर्शन और कृष्ण-कीर्तन के आध्यात्मिक प्रवाह में पड़कर संसार को निस्सार समझने लगीं। उन्हें राणा विक्रमादित्य और मंत्री विजयवर्गीय ने अत्यधिक कष्ट दिए। राणा ने अपनी बहन ऊदाबाई को भी मीरा को समझाने के लिए भेजा, पर कोई फल न हुआ। वे कुल मर्यादा को छोड़कर भक्त जीवन अपनाए रहीं। मीरा को स्त्री होने के कारण, चित्तौड़ के राजवंश की कुलवधू होने के कारण तथा अकाल में विधवा हो जाने के कारण अपने समाज तथा वातावरण से जितना विरोध सहना पड़ा उतना कदाचित ही किसी अन्य भक्त को सहना पड़ा हो। उन्होंने अपने काव्य में इस पारिवारिक संघर्ष के आत्मचरित-मूलक उल्लेख कई स्थानों पर किए हैं।

सन्‌ 1533 ई. के आसपास मीरा को 'राव बीरमदेव' ने मेड़ता बुला लिया। मीरा के चित्तौड़ त्याग के पश्चात सन्‌ 1534 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। विक्रमादित्य मारे गए तथा तेरह सहस्र महिलाओं ने जौहर किया। सन्‌ 1538 ई. में जोधपुर के राव मालदेव ने बीरमदेव से मेड़ता छीन लिया। वे भागकर अजमेर चले गए और मीरा ब्रज की तीर्थ यात्रा पर चल पड़ीं। सन्‌ 1539 ई. में मीरा वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं। वे कुछ काल तक वहां रहकर सन्‌ 1546 ई. के पूर्व ही कभी द्वारिका चली गईं।[3] उन्हें निर्गुण पंथी संतों और योगियों के सत्संग से ईश्वर भक्ति, संसार की अनित्यता तथा विरक्ति का अनुभव हुआ था। तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोहिणी माना गया। उनके धार्मिक क्रिया-कलाप राजपूत राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित नियमों के अनुकूल नहीं थे। वह अपना अधिकांश समय कृष्ण को समर्पित मंदिर में और भारत भर से आये साधुओं व तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं।

हत्या के प्रयास
मीरां की प्रतिमा, मेड़ता
पति की मृत्यु के बाद मीराबाई की भक्ति दिन-प्रतिदिन और भी बढ़ती गई। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीरा के लिए आनन्द का माहौल तो तब बना, जब उनके कहने पर राजा महल में ही कृष्ण का एक मंदिर बनवा देते हैं। महल में मंदिर बन जाने से भक्ति का ऐसा वातावरण बनता है कि वहाँ साधु-संतों का आना-जाना शुरू हो जाता है। मीराबाई के देवर राणा विक्रमजीत सिंह को यह सब बुरा लगता है। ऊधा जी भी मीराबाई को समझाते हैं, लेकिन मीरा दीन-दुनिया भूल कर भगवान श्रीकृष्ण में रमती जाती हैं और वैराग्य धारण कर जोगिया बन जाती हैं।[4] भोजराज के निधन के बाद सिंहासन पर बैठने वाले विक्रमजीत सिंह को मीराबाई का साधु-संतों के साथ उठना-बैठना पसन्द नहीं था। मीराबाई को मारने के कम से कम दो प्रयासों का चित्रण उनकी कविताओं में हुआ है। एक बार फूलों की टोकरी में एक विषेला साँप भेजा गया, लेकिन टोकरी खोलने पर उन्हें कृष्ण की मूर्ति मिली। एक अन्य अवसर पर उन्हें विष का प्याला दिया गया, लेकिन उसे पीकर भी मीराबाई को कोई हानि नहीं पहुँची।

द्वारिका में वास
इन सब कुचक्रों से पीड़ित होकर मीराबाई अंतत: मेवाड़ छोड़कर मेड़ता आ गईं, लेकिन यहाँ भी उनका स्वछंद व्यवहार स्वीकार नहीं किया गया। अब वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़ीं और अंतत: द्वारिका में बस गईं। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। सन्‌ 1543 ई. के पश्चात मीरा द्वारिका में रणछोड़ की मूर्ति के सन्मुख नृत्य-कीर्तन करने लगीं। सन्‌ 1546 ई. में चित्तौड़ से कतिपय ब्राह्मण उन्हें बुलाने के लिए द्वारिका भेजे गए। कहते हैं कि मीरा रणछोड़ से आज्ञा लेने गईं और उन्हीं में अंतर्धान हो गईं। जान पड़ता है कि ब्राह्मणों ने अपनी मर्यादा बचाने के लिए यह कथा गढ़ी थी। सन्‌ 1554 ई. में मीरा के नाम से चित्तौड़ के मंदिर में गिरिधरलाल की मूर्ति स्थापित हुई। यह मीरा का स्मारक और उनके इष्टदेव का मंदिर दोनों था। गुजरात में मीरा की पर्याप्त प्रसिद्धि हुई। हित हरिवंश तथा हरिराम व्यास जैसे वैष्णव भी उनके प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करने लगे।[5]

केशी घाट, वृन्दावन
एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन (मथुरा) की एक गोपिका थीं। उन दिनों वह राधा की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका विवाह एक गोप से कर दिया गया था। विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए। बाद के समय में जोधपुर के पास मेड़ता गाँव में 1504 ई. में राठौर रतन सिंह के घर गोपिका ने मीरा के रूप में जन्म लिया। मीराबाई ने अपने एक अन्य दोहे में जन्म-जन्मांतर के प्रेम का भी उल्लेख किया है-


मीरांबाई मंदिर, उदयपुर
अपने परिवार वालों के व्यवहार से पीड़ित और फिर परेशान होकर मीराबाई द्वारका और फिर वृंदावन आ गई थीं। वह जहाँ भी जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता। लोग उन्हें देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को एक पत्र भी लिखा था-

मीरां नृत्य करती हुई
मीराबाई संत रविदास की महान शिष्या तथा संत कवयित्री थीं। अधिकतर विद्वानों ने मीराबाई को गुरु रविदास जी की शिष्या स्वीकार किया है। काशीनाथ उपाध्याय ने भी लिखा है- "इस विषय पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता कि मीराबाई गुरु रविदास जी की शिष्या थीं, क्योंकि मीराबाई ने स्वयं अपने पदों में बार-बार गुरु रविदास जी को अपना गुरु बताया है।"

"खोज फिरूं खोज वा घर को, कोई न करत बखानी।
सतगुरु संत मिले रैदासा, दीन्ही सुरत सहदानी।।
वन पर्वत तीरथ देवालय, ढूंढा चहूं दिशि दौर।
मीरा श्री रैदास शरण बिन, भगवान और न ठौर।।
मीरा म्हाने संत है, मैं सन्ता री दास।
चेतन सता सेन ये, दासत गुरु रैदास।।
मीरा सतगुरु देव की, कर बंदना आस।
जिन चेतन आतम कह्या, धन भगवान रैदास।।
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सतगुरु सैन दई जब आके, ज्याति से ज्योत मिलि।।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय।
गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।"

इस प्रकार मीराबाई की वाणी से स्पष्ट है कि वह गुरु रविदास के समकालीन संत श्रेणी में आती थीं और गुरु रविदास को ही उन्होंने गुरु की उपाधि प्रदान की थी। अतः मीराबाई गुरु रविदास की विधिवत शिष्या बनीं और साथ ही नाम सबद, संगीत व तंबूरा, जिसे मीराबाई बजाती थीं, गुरु रविदास से ही पाया था। इसीलिए सम्भवत: यह लगता है कि गुरु दक्षिणा के रूप में उन्होंने राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में 'रविदास छत्तरी' का निर्माण करवाया था। मीराबाई ने भी अपनी वाणी को रागों में ही उच्चारित किया है, जिसमें अधिकतर शब्दों में भैरवी राग को देखा जा सकता है।


फट्टा का स्मारक, चित्तौड़गढ़ Phatta's Memorial, Chittorgarh
फट्टा का स्मारक फट्टा नाम के एक 16 वर्ष की आयु के बहादुर बच्चे को समर्पित है, जिसने चित्तौड़गढ़ के किले को बचाने के लिए शत्रु से लढते हुए अपना जीवन कुर्बान कर दिया। यह विधानसभा भवन के पास राम पोल के अंदर स्थित है। राम पोल चित्तौड़गढ़ किले का मुख्य प्रवेश द्वार है। यह हिंदु संस्कृति का प्रतीक है एवं राजपूताना शौर्य के प्रतीक के रूप में खड़ा है। हिन्दू देवता भगवान् राम को समर्पित एक मंदिर पास ही स्थित है।


सांवरियाजी मंदिर, चित्तौड़गढ़  Sanwariaji Temples, Chittorgarh
सांवरियाजी मंदिर चित्तौड़गढ़ के प्रमुख धार्मिक स्थानों में गिने जाते हैं। ये मंदिर सांवरियां जी को समर्पित हैं जो भगवान कृष्ण के अवतार हैं। ये मंदिर हिंदू भक्तों में, विशेष रूप से उत्तर भारत में बहुत पूजनीय है। इनमें से दो मंदिर राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर स्थित है, जबकि तीसरा मंदिर भादसोड़ा गाँव में स्थित है, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर भादसोड़ा चौराहे से 1 किमी.पर स्थित है। इन मंदिरों के पीछे एक रोचक कहानी है। ऐसा माना जाता है कि 250 साल पहले एक चरवाहा जिसका नाम भोलाराम गुर्जर था, ने सपने में भादसोड़ा गाँव में दबी हुई चार मूर्तियों को देखा। उस स्थान कोखोदा गया और मूर्तियां निकाली गई परंतु इस प्रक्रिया में एक मूर्ती खंडित हो गई और उसे पुन: दफना दिया गया। तीन बची हुई मूर्तियां तीन मंदिरों में स्थापित की गई और उनकी पूजा सांवरियां जी के रूप में की गई। ये मूर्तियां सुंदर हैं और इन मूर्तियों में भगवान कृष्ण बांसुरी बजाते हुए दिखाए गए हैं। इस मंदिर में भक्तों की बहुत भीड़ रहती है जो भगवान का चमत्कारिक आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए यहाँ आते हैं।



राणा कुम्भ महल, चित्तौड़गढ़ Rana Kumbha Palace, Chittorgarh
राणा कुम्भ महल एक ऐतिहासिक स्मारक है जहाँ राजपूत राजा महाराणा कुम्भ ने अपना शाही जीवन बिताया। यह शानदार किला 15 वीं शताब्दी में बना और यह भारत की बेहतरीन संरचनाओं में से एक है। यह राजपूत वास्तुकला का प्रतीक है और पर्यटकों के बीच बहुत लोकप्रिय है। ऐसा माना जाता है कि इस स्थान में कई भूमिगत कोठियां हैं जहाँ रानी पद्मिनी ने अपने प्रान्त की महिलाओं के साथ जौहर (दुश्मन के द्वारा किये जाने वाले अपमान से अपने आप को बचाने के लिए किया जाने वाला मानद आत्मदाह) किया था। इस मंदिर के पास एक प्राचीन मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। इस महल के परिसर में प्रतिदिन पर्यटकों के लिए एक लाइट और ध्वनि का शो आयोजित किया जाता है।


सतबीस देओरी मंदिर, चित्तौड़गढ़  Satbis Deori Temple, Chittorgarh
सतबीस देओरी मंदिर जैनियों के लिए एक पवित्र मंदिर है एवं मोहन मगरी के अंदर स्थित है। मोहन मगरी एक विशाल संरचना है जिसका निर्माण वर्ष 1567 में मुग़ल सम्राट अकबर के चित्तौड़गढ़ आक्रमण के दौरान हुआ था। यह संरचना इतनी उंचाई तक बनाई गई थी कि तोपें सीधे चित्तौड़गढ़ किले में दागी जा सकती थीं। सतबीस देओरी मंदिर एक सुंदर संरचना है जो जैन धर्म एवं संस्कृति की विभिन्न परंपराओं एवं मान्यताओं का प्रदर्शन करती है। मंदिर की कलात्मक नक्काशी भक्तों के दिमाग पर एक महान छाप छोड़ जाती है। तुलजा भवानी मंदिर, सिंगारचौरी एवं नौलखा भंडार कुछ अन्य आकर्षण हैं जो मोहन मगरी परिसर के भीतर स्थित है।


तुलजा भवानी मन्दिर, चित्तौड़गढ़ Tulja Bhawani Temple, Chittorgarh
तुलजा भवानी मन्दिर लगभग 1535 ई. में निर्मित एक प्राचीन मन्दिर है। यह चित्तौड़गढ़ किले के मुख्य द्वार राम पोल के पास स्थित है। यह मंदिर देवी तुलजा भवानी को समर्पित है व तुर्या भवानी के रूप में भी जाना जाता है । मंदिर की वास्तुकला उल्लेखनीय है, और मंदिर की दीवारें विभिन्न हिंदू देवी - देवताओं के चित्र से सजी हैं। यह मंदिर चित्तौड़गढ़ के मूल निवासियों की कलात्मक प्रतिभा का एक प्रतीक है।


सीतामाता वन्यजीवन अभ्यारण्य, चित्तौड़गढ़ Sitamata Wildlife Sanctuary, Chittorgarh
सीतामाता वन्यजीवन अभ्यारण्य अरावली के पहाड़ों और मालवा के पठार पर फैला हुआ है। यह अभ्यारण्य घने पर्णपाती वनों से से घिरा हुआ है, जो केवल एक अकेला ऐसा वन है जहाँ इतनी बड़ी संख्या में सागौन के वृक्ष हैं। इसके अल्वा यहाँ बाँस, साल, आँवला और बेल के वृक्ष भी है, लगभग आधे से अधिक वृक्ष सागौन के हैं। इस अभ्यारण्य से होकर जाखम और करमोई नदियाँ बहती हैं। जाखम नदी पर एक बाँध बना है जो स्थानीय लोगों की सिंचाई की आवश्यकताओं को पूरा करता है। इस अभ्यारण्य में जानवर जैसे तेंदुआ, हाइना, सियार, जंगली बिल्ली, साही, चित्तीदार हिरण, भालू और चार सींगों वाला मृग देखें जा सकते हैं। उड़ने वाली गिलहरी जो एक रोचक निशाचर प्राणी है, उसे आप यहाँ रात में वृक्षों के बीच उड़ता हुआ देख सकते हैं। इस स्थान का पौराणिक महत्व भी है क्योंकि ऐसा माना जाता है की भगवान राम की पत्नी सीता अपने निर्वासन के दौरान यहाँ ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में रही थी।

विजय स्तंभ, चित्तौड़गढ़  Vijaya Stambh, Chittorgarh
विजय स्तंभ या विजय मीनार चित्तौड़गढ़ का एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। महाराणा कुंभा ने इस स्तंभ का निर्माण 1440 ई. में करवाया था। यह कलात्मक उत्कृष्ट कृति, पाखंडी मोहम्मद खिलजी पर राज्य की जीत के प्रतीक के रूप में खड़ी है। इस स्तंभ की ऊंचाई लगभग 37 मीटर है एवं इसमें 9 मंजिलें हैं। स्तंभ की दीवारें हिन्दू देवी-देवताओं के चित्रों से सुसज्जित है। हिन्दू महाकाव्य जैसे रामायण एवं महाभारत को दर्शाती प्रभावशाली मूर्तियां इस स्तंभ की उत्कृष्टता को और बढ़ाती हैं। स्तंभ के ऊपर से सम्पूर्ण शहर के शानदार दृश्य का आनंद लिया जा सकता है।

                                         

                                         
                                               
                               चित्तौड़गढ़ किले की खूबसूरती तस्वीर





चित्तौड़गढ़
चित्तौड़गढ़ का क़िला
विवरणचित्तौड़गढ़ मेवाड़ का प्रसिद्ध नगर जो भारत के इतिहास में सिसौदिया राजपूतों की वीरगाथाओं के लिए अमर है।
राज्यराजस्थान
ज़िलाचित्तौड़गढ़
निर्माण कालमौर्य काल
स्थापना7 वीं शताब्दी
भौगोलिक स्थितिउत्तर- 24° 52' 48.00", पूर्व- 74° 37' 48.00"
मार्ग स्थितिचित्तौड़गढ़ सड़क मार्ग जयपुर से 372 किमी, उदयपुर से 113 किमी, दिल्ली से 583 किमी की दूरी पर स्थित है।
प्रसिद्धिचित्तौड़गढ़ के सात-सात दरवाज़े बहुत प्रसिद्ध हैं। इन दरवाज़ों के नाम हैं—पद्मपोल, भैरवपोल, हनुमानपोल, गणेशपोल, जोठलापोल और रामपोल।
कब जाएँअक्टूबर से मार्च
कैसे पहुँचेंहवाई जहाज़, रेल, बस आदि
हवाई अड्डामहाराणा प्रताप हवाई अड्डा
रेलवे स्टेशनचित्तौड़गढ़ रेलवे स्टेशन, चंडेरिया रेलवे स्टेशन, शंभूपुरा रेलवे स्टेशन
बस अड्डामुरली बस अड्डा
यातायातस्थानीय बस, ऑटो रिक्शा, साईकिल रिक्शा
क्या देखेंचित्तौड़गढ़ क़िलारानी पद्मिनी का महलकीर्ति स्तम्भकलिका माता का मन्दिर, शृंगार चवरी, तुलजा भवानी, अन्नपूर्णा, नीलकंठ, शतविंश देवरा, मुकुटेश्वर, सूर्यकुंड, चित्रांगद-तड़ाग तथा पद्मिनी, जयमल, पत्ता और हिंगलु के महल।
कहाँ ठहरेंहोटल, धर्मशाला, अतिथि ग्रह
क्या खायेंराजस्थानी भोजन
क्या ख़रीदेंहस्तनिर्मित खिलौने, चमड़े के जूते और कपड़े
एस.टी.डी. कोड01472
ए.टी.एमलगभग सभी
Map-icon.gifगूगल मानचित्र
भाषाहिंदीराजस्थानीअंग्रेजी
अन्य जानकारीचित्तौड़ के क़िले के अन्दर आठ विशाल सरोवर हैं। प्रसिद्ध भक्त कवयित्री मीराबाई (जन्म 1498 ई.) का भी यहाँ मन्दिर है, जिसेबहादुरशाह ने तोड़ डाला था।
बाहरी कड़ियाँआधिकारिक वेबसाइट
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